Dua ki Fazilat
नहमदुहू व नुसल्ली अला रसूलि हिल करीम अम्मा बअद !
इस्लाम में दुआओं की बड़ी अहमियत है और यह दुआएँ मस्जिद और मद्रसह, विलादत और वफात और दुःख-सुख तक महदूद नहीं, बल्के इस्लाम में दुआओं का इस्तेमाल बहुत ज़्यादा है महद ता लहद ( माँ की गोद से कब्र की मंज़िल तक) ज़िंदगी के हर हर गोशे की दुआ इस में मौजूद है । इबादत के मौके पर बहुत सी दुआएँ पढ़ी जाती हैं उन के सिवा भी बहुत सी ख़ास दुआएँ हैं जिन को अलग अलग वक़्तों में पढ़ने की तालीम इस्लाम ने दी है ।
जैसे खुशी के वक़्त की दुआ, गुस्से के वक़्त की दुआ, आईना देखने की दुआ, सलाम भेजने वाले के लिए दुआ, मुर्ग की आवाज़ सुन कर दुआ, गधे की आवाज़ सुन कर दुआ, कुत्ते की आवाज़ सुन कर दुआ, नया फल देख कर दुआ, नया चाँद देख कर दुआ, नया कपड़ा पहनने की दुआ, बारिश की दुआ, मस्जिद, घर और बाज़ार के बारे में दुआएँ, पेशाब – पाख़ाने की जगह दाख़िल होने और निकलने की दुआएँ, सोने और जागने की दुआएँ वगैरह वगैरह।
इस तरह की बहुत सी दुआएँ इस्लाम ने बताई हैं और ना सिर्फ बताई हैं बल्के उनका शौक दिलाया है और उनकी फज़ीलतें बयान की हैं ।
अरबी ज़बान में दुआ का मतलब है “माँगना”, “पुकारना” और शरीअत की इस्तिलाह में अल्लाह से माँगना और उसको मदद के लिए पुकारना।
अल्लाह से दुआ किसी भी जुबान (बोली) में कर सकते ख़ास वक़्त की दुआएँ उन ही लफ्ज़ों में करनी चाहिए जो कुरआन और हदीस की किताबों में हैं । उन में किसी भी तरह की कभी – ज़्यादती नहीं करनी चाहिए।
एक बार बराअ बिन आज़िब (रजि) ने रसूलुल्लाह (ﷺ) को सोने की दुआ सुनाई और उन्हों ने वबिरसूलि कल्लज़ी अर्सल्त कहा, आप (ﷺ) ने इस मामूली तब्दीली को नापसंद करते हुए फरमाया के “वबिनबिय्यिकल्लज़ी अर्सत” ही कहो 1 नबी के लफ्ज़ की जगह रसूल के लफ्ज़ की तब्दीली को आप (ﷺ) ने पसंद नहीं किया, जब के आप रसूल भी थे ।
कोई दुआ लफ्ज़ या माअना के एतेबार से चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न हो लेकिन शरीअत में उस का कोई सबूत न हो तो वोह मनघड़त है । इसलिए ऐसी दुआओं से बचते हुए ख़ालिस कुरआन और हदीस की दुआओं को ही अपनाना चाहिए ।
कुरआन और हदीस की दुआएँ ही मकबूल दुआएँ हैं । इन ही दुआओं को सीखना सिखाना चाहिए। और मौका ब मौका हमेशा पढ़ते रहना चाहिए। और कोई मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहिए ।
एक दफा रसूलुल्लाह (ﷺ) सवारी पर थे, जानवर ने शरारत की तो आप (ﷺ) के पीछे बैठे हुए सहाबी ने कहा, तइस शैतान (शैतान मरे) यह सुनकर आप (ﷺ) ने फरमाया, ऐसा मत कहो इस से शैतान फूल कर घर की मानिन्द हो जाता है, बल्के कहो “बिस्मिल्लाह” इस से शैतान सुकड़-सिमट कर मख्खी की तरह छोटा हो जाता है। 2
आज भी कई बार ऐसा होता है के आदमी अपनी सवारी के शरारत करने, या मोटर सायकल वगैरह जल्दी से चालू न होने पर, या कोई काम बिगड़ जाने पर शैतान को लअन – तअन करता है। ऐसे मौकों पर शैतान पर लान-तअन करने के बजाए बिस्मिल्लाह कहना चाहिए।
इस्लाम ने हर मौका की दुआ बताई है। जब कोई बंदा इन दुआओं को मौका ब मौका पढ़ता रहता है तो अजरो सवाब के साथ-साथ जहाँ एक तरफ अपने ख़ालिक़ व मालिक से उसका तअल्लुक काइम रहता है । वहीं दूसरी तरफ उस की ज़बान से अल्लाह की तौहीद का इकरार, अपनी मोहताजी का इज़हार और नुस्रते इलाही के तलब का मुआमला भी जारी रहता है।
शायद इसीलिए दुआ को इस्लाम ने बहुत ही अहमियत और फज़ीलत दी है। जैसा के रसूलुल्लाह ने दुआ को इबादत करार देते हुए फरमाया अददुआउ हुवल इबादह 3 दुआ इबादत है और अल्लाह पाकने दुआ को कबूल करने का वादा करते हुवे फरमाया उदऊनी अस्तजिब लकुम. 4 यानी मुझ से दुआ करो मैं तुम्हारी दुआ को कबूल करूंगा ।
नीज़ फरमाया उजीबु दवतददाइ इजा दआनि. 5 यानी मैं पुकारने वाले की पुकार को जब कभी वोह मुझे पुकारे कबूल करता हूँ।
अल्लाह से दुआ की जाए तो वह खुश होता है और दुआ को कबूल करता है । हदीसे नबवी ﷺ में है जब कोई मुसलमान बंदा अल्लाह से दुआ करता है तो अल्लाह उस दुआ के बदले माँगी हुई चीज़ देता है। या फिर उस दुआ के बदले कोई आफत और मुसीबत टाल देता है। 6 या फिर उस दुआ को आख़िरत का ज़खीरा बना देता है। 7
अलबत्तह, गुनाह और नाफरमानी की दुआ, रिश्ते-नातों को तोड़ने की दुआ। 8 और हराम खाने – पीने और पहनने वाले की दुआ कबूल नहीं होती। 9
दुआ की कबूलीयत के लिए उस की शरतों का लिहाज़ रखना ज़रूरी है। अगर शरतों का लिहाज़ रखते हुए दुआ की जाए तो वह ऊपर की तीन सूरतों में से किसी न किसी सूरत में ज़रुर कबूल होगी।
दुआ है अल्लाह हमें दुआ की अहमियत और फज़ीलत समझने और दुआओं को याद करने का शौक अता फरमाए। आमीन
- सहीह बुख़ारी : किताबुद दवात ( 3 /519) ↩︎
- सहीह सुनन अबी दाऊद : किताबुल अदब (4982) ↩︎
- सहीह सुननुत्तिर्मिज़ी : किताबुद दवात (3 / 3372) ↩︎
- सूरह मुमिन : आयत नं. 60 ↩︎
- सूरह बक़रह : आयत नं. 186 ↩︎
- सहीह सुननुत्तिर्मिज़ी : किताबुद दवात (3/3573) ↩︎
- सहीह सुननुत्तिर्मिज़ी किताबुद दवात (3 / 3604) ↩︎
- सहीह सुननुत्तिर्मिज़ी : किताबुद दवात ( 3 / 3573) ↩︎
- सहीह मुस्लिम : किताबुज़ ज़कात ( 3/43) ↩︎